कितनी दूरी मंज़िल की हो चलते चलते कट जाती है विदा दिवस की मणिवेला में ,धरती तमवसना बन जाती , कितनी रात अँधेरी हो पर धीरे -धीरे घट जाती है।
शिवे !तुम्हे लिखना तुमसे संवाद करते रहना एक अनिवार्य बाध्यता सी हो गई है। चाहो तो इसे ऑब्सेशन कह लो ऑब्सेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर कह लो। मैं भी क्या करूँ तुम अनंत जिज्ञासा से लबालब हो जल्दी से ब्रह्मज्ञानी हो जाना चाहती हो अब कल घनांनद को पढ़ा तो उन्हीं पर विमुग्ध हो कह उठीं खुद से ही -इस देश में ऐसे -ऐसे कविगण हुए हैं फिर भी हम अज्ञानी के अज्ञानी ही बने हुए हैं हम ब्रह्म ग्यानी कब होवेंगे।
शिवे !सफलता का कोई क्रेश कोर्स नहीं है वह उन लोगों का कर्म था जिन्हें इसी कर्म के चलते कर्म की शुचिता के चलते ब्रह्म ज्ञान हो गया और जो दैहिक प्रेम की सीढ़ी चढ़ने के प्रयास में ईश्वरीय प्रेम तक पहुँच गए। प्रेम फिर प्रेम ही है पूर्ण समर्पण चाहता है। किसी से भी कर लो जितनी बार कर लो।इश्क हक़ीक़ी या जिस्मानी प्रेम बे -मानी नहीं होता घना-नन्दीय हो बस प्रेम -
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झझकें कपटी जे निसांक नहीं।
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तें दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहु पै देहु छटांक नहीं॥
तुम मेरी मानस पुत्री मानस सखा बन चुकी हो मन की स्लेट पे लिख लेता हूँ तुम से बतिया लेता हूँ। बारहवीं में पढता था जब बादलों के रंग शाम का मौन अच्छा लगता था। कच्ची छत की पक्की मुंडेर पर देर तक बैठा रहता था। न जाने क्या सोचता हुआ। क्या -क्या ख्याली पुलाव बनाता हुआ। उसी दौर में यह लम्बी कविता पढ़ी थी कुछ पंक्तियाँ इसकी अब भी याद हैं -
कितनी दूरी मंज़िल की हो चलते चलते कट जाती है
विदा दिवस की मणिवेला में ,धरती तमवसना बन जाती ,
कितनी रात अँधेरी हो पर धीरे -धीरे घट जाती है।
हाँ शिवे !लक्ष्य सामने रहे निरंतर। योगी आनंद जी कहा करते थे -शर्माजी जो रास्ता भगवान् की ओर जाता है वह कभी नष्ट नहीं होता। अगले जन्म की यात्रा उसी बिंदु से शुरू होती है जहां इस जन्म की संपन्न होती है। यानी शुरू से तय नहीं करनी पड़ती। हम चल पड़ें हैं उस मार्ग पर बस चलते रहें पहुंचेंगे ज़रूर कब भले इसका कोई निश्चय नहीं पर यह क्या कम है हम चल तो रहे हैं उसी मार्ग पर जिसके माइल्स भगवान् के दीवान में दर्ज़ हो जाते हैं फ्रिक्वेंट फ्लायर्स के एयर माइल्स से।
इति फिलाल के लिए इतना ही है।
नेहा से -वीरुभाई !
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