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Showing posts from April, 2021

संस्कृति -संविधान है इक नाम अब , देते देते गालियां भी चुक गईं

बदज़ुबानी उसने की जो ,बढ़ गई , रंजिशें आपस की बेहद बढ़ गईं।   जैसे थे वह  तुर्क हिन्दू अब नहीं, फासले और दूरियां अब बढ़ गईं।  जिस सियासत ने किया सौदा मज़हब , देखते ही देखते वह बढ़ गई।  जो थे ओछे और भी ओछे हुए , दरमियान उनके  हदें सब ढह गईं।  संस्कृति -संविधान है  इक नाम अब , देते देते गालियां भी चुक गईं।                             -------------वीरुभाई        -------------- ठाकुर दास सिद्ध -विश्व हिंदी संस्थान ,कनाडा             (ग़ज़ल )   आग जो उसने लगाईं बढ़ गई , मुफ़लिसों की अब रुलाई बढ़ गई।  झौंपड़े जैसे थे वैसे ही नहीं , और महलों की ऊंचाई बढ़ गई।  जो यहां ईमान बेचा देखिए , दूसरे पल से कमाई बढ़ गई।  जो थे छोटे और भी छोटे हुए , बीच थी जो आज खाई बढ़  गई।  महफ़िलों में खूब खनके ज़ाम  पर , अपने दुःख की बात आई बढ़ गई।  'सिद्ध' समझाने गए उसके लिए , वो नहीं समझा ढिठाई बढ़ गई।  ------------------माननीय ठाकुर दास सिद्ध