बदज़ुबानी उसने की जो ,बढ़ गई ,
रंजिशें आपस की बेहद बढ़ गईं।
जैसे थे वह तुर्क हिन्दूअब नहीं,
फासले और दूरियां अब बढ़ गईं।
जिस सियासत ने किया सौदा मज़हब ,
देखते ही देखते वह बढ़ गई।
जो थे ओछे और भी ओछे हुए ,
दरमियान उनके हदें सब ढह गईं।
संस्कृति -संविधान है इक नाम अब ,
देते देते गालियां भी चुक गईं।
-------------वीरुभाई
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ठाकुर दास सिद्ध -विश्व हिंदी संस्थान ,कनाडा
(ग़ज़ल )
आग जो उसने लगाईं बढ़ गई ,
मुफ़लिसों की अब रुलाई बढ़ गई।
झौंपड़े जैसे थे वैसे ही नहीं ,
और महलों की ऊंचाई बढ़ गई।
जो यहां ईमान बेचा देखिए ,
दूसरे पल से कमाई बढ़ गई।
जो थे छोटे और भी छोटे हुए ,
बीच थी जो आज खाई बढ़ गई।
महफ़िलों में खूब खनके ज़ाम पर ,
अपने दुःख की बात आई बढ़ गई।
'सिद्ध' समझाने गए उसके लिए ,
वो नहीं समझा ढिठाई बढ़ गई।
------------------माननीय ठाकुर दास सिद्ध
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