इस शास्त्र का 'पूर्वमीमांसा' नाम इस अभिप्राय से नहीं रखा गया है कि यह उत्तरमीमांसा से पहले बना । 'पूर्व' कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मकांड मनुष्य का प्रथम धर्म है ज्ञानकांड का अधिकार उसके उपरान्त आता है। मीमांसा का तत्वसिद्धान्त विलक्षण है । इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में है । षड्दर्शन षड्दर्शन उन भारतीय दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों के मंथन का परिपक्व परिणाम है जो हजारों वर्षो के चिन्तन से उतरा और हिन्दू (वैदिक) दर्शन के नाम से प्रचलित हुआ। इन्हें आस्तिक दर्शन भी कहा जाता है। दर्शन और उनके प्रणेता निम्नलिखित है। १ पूर्व मीमांसा: महिर्ष जैमिनी २ वेदान्त (उत्तर मीमांसा): महिर्ष बादरायण ३ सांख्य: महिर्ष कपिल ४ वैशेषिक: महिर्ष कणाद ५ न्याय: महिर्ष गौतम ६ योग: महिर्ष पतंजलि वेद ज्ञान को समझने व समझाने के लिए दो प्रयास हुए: १. दर्शनशास्त्र २. ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थ। ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थों में अपने-अपने विषय के आप्त ज्ञाताओं द्वारा अपने शिष्यों, श्रद्धावान व जिज्ञासु लोगों को मूल वैदिक ज्ञान सरल भाषा में विस्तार से समझाया है। यह ऐसे ही है जैसे आज के युग में
कितनी दूरी मंज़िल की हो चलते चलते कट जाती है विदा दिवस की मणिवेला में ,धरती तमवसना बन जाती , कितनी रात अँधेरी हो पर धीरे -धीरे घट जाती है।
शिवे !तुम्हे लिखना तुमसे संवाद करते रहना एक अनिवार्य बाध्यता सी हो गई है। चाहो तो इसे ऑब्सेशन कह लो ऑब्सेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर कह लो। मैं भी क्या करूँ तुम अनंत जिज्ञासा से लबालब हो जल्दी से ब्रह्मज्ञानी हो जाना चाहती हो अब कल घनांनद को पढ़ा तो उन्हीं पर विमुग्ध हो कह उठीं खुद से ही -इस देश में ऐसे -ऐसे कविगण हुए हैं फिर भी हम अज्ञानी के अज्ञानी ही बने हुए हैं हम ब्रह्म ग्यानी कब होवेंगे। शिवे !सफलता का कोई क्रेश कोर्स नहीं है वह उन लोगों का कर्म था जिन्हें इसी कर्म के चलते कर्म की शुचिता के चलते ब्रह्म ज्ञान हो गया और जो दैहिक प्रेम की सीढ़ी चढ़ने के प्रयास में ईश्वरीय प्रेम तक पहुँच गए। प्रेम फिर प्रेम ही है पूर्ण समर्पण चाहता है। किसी से भी कर लो जितनी बार कर लो।इश्क हक़ीक़ी या जिस्मानी प्रेम बे -मानी नहीं होता घना-नन्दीय हो बस प्रेम - अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झझकें कपटी जे निसांक नहीं। घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तें दूसरो आँक नहीं। तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहु पै देहु छटांक नहीं॥ व्याख्या :प्रेम का मार्ग अत्यंत